मैहर माता का मंदिर नमस्कार दोस्तों, आज हम जानेंगे एक ऐसे मंदिर की कहानी जहां हर रोज मंदिर बंद होने के बाद कोई आता है और पूजन कर देता है स्थानीय लोगों का मानना है यह कोई और नहीं महोबा के वीर योद्धा आल्हा हैं आखिर कौन थे आल्हा इसकी बात हम आगे वीडियो में करेंगे
मध्यप्रदेश के सतना जिले में मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत परविराजमान है मां शारदा , मां शारदा जिनको हम मैहर वाली माता के नाम से भी जानते हैं यह मंदिर देवी की प्रसिद्ध 52 शक्तिपीठ में से एक है। मैहर का मतलब है मां का हार। माना जाता है कि यहां मां सती के गले का हार गिरा था इसलिए इस स्थान को मैहर वाली माता के नाम से जाना जाता है
मैहर देवी मंदिर कहां है | मैहर माता का मंदिर | सतना
पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर मां शारदा का सबसे भव्य मंदिर है।मान्यता है कि शाम की आरती होने के बाद जब मंदिर के कपाट बंद करके सभी पुजारी नीचे आ जाते हैं इसके बाद जब प्रातः काल मंदिर के कपाट पुनः खोल जाते हैं| तो ऐसा लगता है मानो कोई मां की पूजन करके गया हो
1063 सीढ़ी चढ़कर इतनी ऊंची पहाड़ी पर रात के समय मंदिर बंद होने के उपरांत ऐसा कौन है जो मां के दर्शन करने डेली आता है
यहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि मां के भक्त और बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा आल्हा अभी भी पूजा करने आते हैं। अक्सर सुबह की आरती वे ही करते हैं। मैहर मंदिर के महंत बताते हैं कि अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है।
कौन थे आल्हा?
आल्हा और ऊदल दो भाई थे। ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और राजा परमार के सामंत थे। महोबा के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य रचना की था उसमें इन वीरों योद्धाओं की गाथा का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में दों वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है। आखरी लड़ाई उन्होंने दिल्ली की सबसे शक्तिशाली राजा पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ी थी। कहा जाता है युद्ध में पृथ्वीराज चौहान हार गए थे। इस युद्ध में आल्हा के छोटे भाई उदल वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
कहां जाता है युद्ध के अंतिम क्षणों में गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखरी लड़ाई थी।
मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। यहां के लोग कहते हैं कि दोनों भाइयों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदादेवी के इस मंदिर की खोज की थी। आल्हा ने यहां 12 वर्षों तक माता की तपस्या की थी। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे इसीलिए प्रचलन में उनका नाम शारदा माई हो गया।
इसके अलावा, ये भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी।मंदिर परिसर से थोड़ी दूर पर आल्हा उदल का ऊखाड़ा भी स्थित है। इसके अलावा वहां एक तालाब है। इसके बारे में मान्यता है कि दोनों भाई आल्हा और ऊदल इस सरोवर में स्नान किया करते थे। इसके बाद ही मां के दर्शनों के लिए जाते थे।
मंदिर में आने वाले श्रद्धालु इस स्थान के भी दर्शन करने आते हैं।मैहर मंदिर की खोज और पुनर्निर्माण का श्रेय राजा परमाल को दिया जाता है। वे बुंदेलखंड क्षेत्र के एक प्रसिद्ध राजा थे, जिन्होंने मंदिर का पुनर्निर्माण किया और इसे एक प्रमुख तीर्थ स्थल बनाया।
इससे पहले, मैहर माता का मंदिर अस्तित्व था, लेकिन राजा परमाल के समय में इसे पुनर्जीवित किया गया और यहाँ पर पूजा-अर्चना की प्रक्रिया को व्यवस्थित किया गया। राजा ने मंदिर को एक धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित किया, जिससे यहाँ आने वाले भक्तों की संख्या में वृद्धि हुई।
मान्यता है कि माँ सती का हार मैहर में गिरा था। यह कथा शिव और सती के संबंधों से जुड़ी हुई है। जब सती ने अपने पति भगवान शिव के अपमान के कारण आत्मदाह किया, तो भगवान शिव ने उनके शव को लेकर तांडव किया। इस दौरान सती के शरीर के विभिन्न अंग पृथ्वी पर अलग-अलग स्थानों पर गिरे, जिन्हें शक्तिपीठों के रूप में पूजा जाता है।
मैहर में सती का हार गिरा था, जिसके कारण इसे एक शक्तिपीठ माना जाता है। यहाँ देवी माता शारदा की पूजा होती है, और इसे एक पवित्र स्थल के रूप में देखा जाता है। भक्तों का मानना है कि यहाँ आने से उनकी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, और यह स्थान सती की भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है।
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